कविता: वरदान मांगूंगा नहीं | कवि: शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
अटल जी की वो ‘कविता’ जिसे लेकर देश दशकों से भ्रम में है – एक ऐसी कविता जिसे लोग दशकों तक अटल जी लिखा ही मानते रहे लेकिन उसे अटल जी ने न लिखा था और न ही कभी उस कविता पर अपना दावा किया।
ये पंक्तियाँ चाहे जितनी भी बार क्यों ना सुनी जाएं, हर बार एक नयी चेतना, एक नयी शक्ति, एक नयी ऊर्जा का प्रवाह कर उत्साह से भर देती हैं।
यह हार एक विराम है
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
स्मृति सुखद प्रहरों के लिए
अपने खंडहरों के लिए
यह जान लो मैं विश्व की संपत्ति चाहूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
क्या हार में क्या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं
संधर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
लघुता न अब मेरी छुओ
तुम हो महान बने रहो
अपने हृदय की वेदना मैं व्यर्थ त्यागूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
चाहे हृदय को ताप दो
चाहे मुझे अभिशाप दो
कुछ भी करो कर्तव्य पथ से किंतु भागूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी और शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
अटलजी ने एक बार सुमन के बारे में बोलते हुए कहा था कि शिवमंगल सिंह सुमन हिंदी कविता के मात्र हस्ताक्षर भर नहीं थे बल्कि वह अपने समय की सामूहिक चेतना के संरक्षक भी थे. उनकी रचनाओं ने न केवल अपनी भावनाओं का दर्द व्यक्त किया, बल्कि इस युग के मुद्दों पर भी निर्विवाद रचनात्मक टिप्पणी की.
शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ – संक्षिप्त जीवनी
इस कविता को लिखने वाले शिवमंगल सिंह सुमन का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में हुआ था. सुमन की मृत्यु 2002 में मध्य प्रदेश के उज्जैन में हुई. इनकी कविताओं के खुद अटलजी इतने दीवाने थे कि कई दफा सार्वजनिक मंच से कुछ अंश बोला करते थे।
उन्नाव जिले के झगरपुर ग्राम में 5 अगस्त सन् 1915 को जन्मे शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ हिन्दी गीत के सशक्त हस्ताक्षर हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर तथा डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने वाले ‘सुमन’ जी ने अनेक अध्ययन संस्थाओं, विश्वविद्यालयों तथा हिन्दी संस्थान के उच्चतम पदों पर कार्य किया। जिन्होंने सुमन जी को सुना है वे जानते हैं कि ‘सरस्वती’ कैसे बहती है। सरस्वती की गुप्त धारा का वाणी में दिग्दर्शन कैसा होता है।
उनकी कविताओं मे समाज की वर्तमान दशा का इतना जीवंत चित्रण होता था कि श्रोता अपने अंदर आनंद की अनुभूति करते हुए ‘ज्ञान’ और ज्ञान की ‘विमलता’ से भरापूरा महसूस करता था।
सरलता और सहजता इनकी रचनाओं मे कूट- कूट कर भरी है, ठीक वैसे ही जैसा की इनका स्वभाव था।
डा. शिवमंगल सिंह सुमन के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षण वह था जब उनकी आँखों पर पट्टी बांधकर उन्हे एक अज्ञात स्थान पर ले जाया गया। जब आँख की पट्टी खोली गई तो वह हतप्रभ थे। उनके समक्ष स्वतंत्रता संग्राम के महायोद्धा चंद्रशेखर आज़ाद खड़े थे। आज़ाद ने उनसे प्रश्न किया था, क्या यह रिवाल्वर दिल्ली ले जा सकते हो। सुमन जी ने बेहिचक प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। आज़ादी के दीवानों के लिए काम करने के आरोप में उनके विरुद्ध वारंट ज़ारी हुआ। सुमन जी का एक ऐसा स्वरूप था- देशभक्त,राष्ट्रवादी।
प्रगतिवादी कविता के स्तंभ डा. शिवमंगल सिंह सुमन लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचने के बाद 27 नवंबर 2002 को चिरनिद्रा में लीन हो गए। ‘सुमन’ चाहे कितना ही भौतिक हो, चाक्षुक आनंद देता है लेकिन वह निरंतर गंध में परिवर्तित होते हुए स्मृतियों में समाता है। सुमन अब ‘पद्य’ में हैं, स्मृतियों में जीवित हैं, और उनकी रचनायें जीवन की कठिनाइयों में प्रेरणा देती, अंधेरे मे रास्ता दिखाने का काम हमेशा करती रहेंगी।