कबीर दास के सर्वाधिक प्रसिद्ध दोहे (साधु की महिमा में) | Kabir das Ke Dohe With Meaning

Related Articles

कबीर दास ने साधु की महिमा में कई बहु-चर्चित गीत गाये हैं। भारतीयों की रूढ़िवादित एवं आडंबरों पर करारी चोट करने वाले महात्मा कबीर की वाणी आज भी घर-घर में गूँजती है। महात्मा कबीर भक्ति-काल के प्रखर साहित्यकार थे और समाज-सुधारक भी। कबीर के दोहे (Kabir Ke Dohe) सर्वाधिक प्रसिद्ध व लोकप्रिय हैं। हम कबीर के अधिक से अधिक दोहों को संकलित करने हेतु प्रयासरत हैं।

यंहा हमने कबीर के प्रसिद्ध, लोकप्रिय एवं बहु चर्चित साधु महिमा दोहों का हिंदी अर्थ सहित संग्रह किया है, आशा है आपको यह कबीर के दोहों का संग्रह पसंद आएगा।


दोहा 01:

कबीर संगति साध की, बेगि करीजै जाइ।
दुर्मति दूरि गंवाइसी, देसी सुमति बताइ॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि साधु की संगति जल्दी ही करो, भाई, नहीं तो समय निकल जायगा। तुम्हारी दुर्बुद्धि उससे दूर हो जायगी और वह तुम्हें सुबुद्धि का रास्ता पकड़ा देगी।


दोहा 02:

साधू भूखा भाव का, धन का भूख नाहिं।
धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधु नाहिं।।

अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि साधु प्रेम-भाव का भूखा होता है, वह धन का भूखा नहीं होता। जो धन का भूखा होकर लालच में फिरता रहता है, वह सच्चा साधु नहीं होता।


दोहा 03:

जिहिं घरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं
ते घर मड़हट सारंषे, भूत बसै तिन माहिं॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि जिस घर में साधु की पूजा नहीं, और हरि की सेवा नहीं होती, वह घर तो मरघट है, उसमें भूत-ही-भूत रहते हैं।


दोहा 04:

कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय।
अंक भरे भरि भेरिये, पाप शरीर जाय॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि वो दिन बहुत अच्छा है जिस दिन सन्त मिले सन्तो से दिल खोलकर मिलो, मन के दोष दूर होंगे।


दोहा 05:

मथुरा जाउ भावै द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ।
साध-संगति हरि-भगति बिन, कछू न आवै हाथ॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि तुम मथुरा जाओ, चाहे द्वारिका, चाहे जगन्नाथपुरी, बिना साधु-संगति और हरि-भक्ति के कुछ भी हाथ आने का नहीं।


दोहा 06:

बरस – बरस नहिं करि सकैं, ताको लगे दोष।
कहैं कबीर वा जीव सों, कबहु न पावै मोष॥

अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि यदि सन्तो के दर्शन बरस -बरस में भी न कर सके, तो उस भक्त को दोष लगता है। सन्त कबीर जी कहते हैं, ऐसा जीव इस तरह के आचरण से कभी मोक्ष नहीं पा सकता।


दोहा 07:

मास – मास नहिं करि सकै, छठे मास अलबत।
थामें ढ़ील न कीजिये, कहैं कबीर अविगत॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि यदि सन्तो के दर्शन महीने-महीने न कर सके, तो छठे महीने में अवश्य करे। अविनाशी वोधदाता गुरु कबीर कहते हैं कि इसमें शिथिलता मत करो।


दोहा 09:

बार -बार नहिं करि सकै, पाख – पाख करि लेय।
कहैं कबीर सों भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि यदि सन्तो के दर्शन साप्ताहिक न कर सके, तो पन्द्रह दिन में कर लिया करे। कबीर जी कहते है ऐसे भक्त भी अपना जन्म सफल बना सकते हैं।


दोहा 10:

दरशन कीजै साधु का, दिन में कइ कइ बार।
आसोजा का भेह ज्यों, बहुत करे उपकार॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि सन्तो के दरशन दिन में बार-बार करो। यहे आश्विन महीने की वृष्टि के समान बहुत उपकारी है।


दोहा 11:

दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करू इकबार |
कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि सन्तो के दरशन दिन में दो बार ना कर सके तो एक बार ही कर ले। सन्तो के दरशन से जीव संसार – सागर से पार उतर जाता है।


दोहा 12:

दूजे दिन नहीं करि सके, तीजे दिन करू जाय।
कबीर साधु दरश ते, मोक्ष मुक्ति फन पाय॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि सन्त दर्शन दूसरे दिन ना कर सके तो तीसरे दिन करे। सन्तो के दर्शन से जीव मोक्ष व मुक्तिरुपी महान फल पता है।


दोहा 13:

सुनिये पार जो पाइया, छाजिन भोजन आनि।
कहैं कबीर संतन को, देत न कीजै कानि॥

सुनिये ! यदि संसार-सागर से पार पाना चाहते हैं, भोजन-वस्त्र लाकर संतों को समर्पित करने में आगा-पीछा या अहंकार न करिये।


दोहा 14:

खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय।
कहैं कबीर कछु भेंट धरूँ,जो तेरे घर होय॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि सब कोई कान लगाकर सुन लो, सन्तों लो खाली हाथ मत विदा करो। कबीर जी कहते हैं, तम्हारे घर में जो देने योग्य हो, जरूर भेट करो।


दोहा 15:

इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय।
कहैं कबीर सोई संतजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि किसी के रोडे डालने से न रुक कर, सन्त-दर्शन के लिए अवश्य जाना चहिये। सन्त कबीर जी कहते हैं, ऐसे ही सन्त भक्तजन मोक्ष फल को पा सकते हैं।


दोहा 16:

निरबैरी निहकांमता, साईं सेती नेह।
विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग एह।।

अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि वैररहित होना, निष्काम भाव से ईश्वर से प्रेम और विषयों से विरक्ति- यही संतों के लक्षण हैं।


दोहा 17:

जेता मीठा बोलणा, तेता साध न जाणि ।
पहली थाह दिखाइ करि, उंडै देसी आणि ॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि उनको वैसा साधु न समझो, जैसा और जितना वे मीठा बोलते हैं । पहले तो नदी की थाह बता देते हैं कि कितनी और कहाँ है, पर अन्त में वे गहरे में डुबो देते हैं । सो मीठी-मीठी बातों में न आकर अपने स्वयं के विवेक से काम लिया जाये ।


दोहा 18:

संत न छांड़ै संतई, जे कोटिक मिलें असंत ।
चंदन भुवंगा बैठिया, तउ सीतलता न तजंत॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि करोड़ों ही असन्त आजायं, तोभी सन्त अपना सन्तपना नहीं छोड़ता । चन्दन के वृक्ष पर कितने ही साँप आ बैठें, तोभी वह शीतलता को नहीं छोड़ता ।


दोहा 19:

गांठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह ।
कह कबीर ता साध की, हम चरनन की खेह॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि हम ऐसे साधु के पैरों की धूल बन जाना चाहते हैं, जो गाँठ में एक कौड़ी भी नहीं रखता और नारी से जिसका प्रेम नहीं ।


दोहा 20:

जाति न पूछौ साध की, पूछ लीजिए ग्यान ।
मोल करौ तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥5॥

अर्थ: कबीर दास जी कहते है कि क्या पूछते हो कि साधु किस जाति का है? पूछना हो तो उससे ज्ञान की बात पूछो तलवार खरीदनी है, तो उसकी धार पर चढ़े पानी को देखो, उसके म्यान को फेंक दो, भले ही वह बहुमूल्य हो ।

You might also like:

Collection of Kabir Das Ji Ke dohe

Collection of Rahim Das Ji Ke Dohe

HomeValuesLiteratureकबीर दास के सर्वाधिक प्रसिद्ध दोहे (साधु की महिमा में) | Kabir...